क्या हैं सिख धर्म के पांच 'क' और इनसे जुड़ी मान्यताएं?

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क्या हैं सिख धर्म के पांच ‘क’ और इनसे जुड़ी मान्यताएं?

सिख धर्म का मुख्य उद्देश्य सेवा और सीख है। पंजाबी भाषा में ‘सिख’ शब्द का अर्थ ‘शिष्य’ होता है। सिख ईश्वर के वे शिष्य हैं जो दस सिख गुरुओं के लेखन और शिक्षाओं का पालन करते हैं। उनका मानना ​​है कि उन्हें अपने प्रत्येक काम में ईश्वर को याद करना चाहिये। यह धर्म लोगों की सेवा करना सिखाता है और सम्मान देना सिखाता है। सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव (Guru Nanak Dev) से लेकर गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh) तक, हर किसी ने मानवता का पाठ पढ़ाया है।

सिख गुरु गोविन्द सिंह जी ने सिखों को एकजुट करके एक नई शक्ति को जन्म दिया। उन्होंने खालसा पंथ की नींव रखी। प्रत्येक स्थिति में सदा तैयार रहने के लिए उन्होंने सिखों के लिए “पाँच ककार” घोषित किए, जो अनिवार्य थे और जिन्हें आज भी प्रत्येक सिख धारण करना अपना गौरव समझता है। यानि गुरु गोबिंद सिंह ने तो सिखों को ‘पांच ककार’ दिए हैं जिनके बिना सच्चा सिख बनना संभव नहीं है।

महंत श्री पारस भाई जी मानते हैं कि विभिन्न नस्ल, धर्म या लिंग के लोग ईश्वर की दृष्टि में एक समान हैं। गुरु नानक जी ने प्रेम और ज्ञान का संदेश दिया। “एक ओंकार” यानि ईश्वर एक है और सभी धर्मों के सभी लोगों के लिये वही एक ईश्वर है। सिख धर्म बहुत ही महान धर्म है। सिख धर्म भी बहुत कुर्बानियां दे कर बना है। सभी धर्मो की नीव उनके गुरुओं द्वारा कुर्बानियां देकर बनाई गयी हैं।

गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। यह सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। गुरु गोबिंद सिंह ने ही गुरु ग्रंथ साहिब को सिखों का गुरु घोषित किया था। उन्होंने अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा करते हुए और सच्चाई की राह पर चलते हुए ही गुजार दिया था।

5 ककार और उनसे जुड़ी धार्मिक मान्यताएं

पाँच ककार केवल प्रतीक नहीं, बल्कि खालसा भक्त की आस्था का आधार है। जो सिख रहन-सहन, “सिख जीवन का आचरण” के लिए प्रतिबद्धता का निर्माण करते हैं। सिख धर्म समाज से जुड़ना सिखाता है और साथ ही जमीन से जुड़े रहना भी सिखाता है। गुरु गोबिंद सिंह का उदाहरण और शिक्षाएं आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं। सिख धर्म व्याप्त सामाजिक कुरीतियों, पाखंडों, अंधविश्वासों आदि के विरुद्ध एक सुधार आंदोलन की तरह उभरा।

पाँच ककार का अर्थ “क” शब्द से नाम शुरू होने वाली उन 5 चीजों से है जिन्हें सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह द्वारा रखे गये सिद्धांतों के अनुसार सभी खालसा सिखों द्वारा धारण किया जाता है। आइए जानते हैं उन 5 ककार के बारे में और उनसे जुड़ी धार्मिक मान्यताएं।

केश

जिसे सभी गुरु और ऋषि-मुनि धारण करते आए थे। शरीर पर मौजूद बाल पुरखों का सम्मान है जिसे कभी भी खुद से अलग करने की मनाही है। खालसा सिखों के लिए केश रखना अनिवार्य है क्योंकि ये आध्यात्म का प्रतीक है। पुराने समय में युद्ध के दौरान केश और पगड़ी सिर की सुरक्षा करते थे। साथ ही लंबे केश एक तरह से सुरक्षा कवच का भी काम करते हैं। आध्यात्मिक अर्थ में केश व्यक्ति की वीरता का प्रतीक हैं। 

कंघा

अध्यात्म में स्वच्छता का बहुत महत्व है और कंघा स्वच्छता का प्रतीक है। पहले समय में बालों को शैम्पू नहीं किया जाता था, इसलिए बालों को पानी एवं तेल से ही साफ़ रखा जाता था। बालों की सफ़ाई के लिए कंघे का प्रयोग किया जाता था। कंघी करने से केश साफ़ रहते हैं। सुबह और शाम लकड़ी के कंघे से बाल झाड़ने से सिर की त्वचा साफ रहती है और रक्त का प्रवाह भी सही बना रहता है। आध्यात्म के साथ इंसान को सांसारिक होना भी जरूरी है इसलिए केश का ध्यान रखने के लिए कंघे की जरूरत होती है।

कच्छहरा 

ये स्फूर्ति का प्रतीक है। कच्छहरे को आत्म-सयंम का प्रतीक भी माना जाता है। कच्छहरे को एक विशेष उद्देश्य से बनाया गया था। दरअसल उस जमाने में जब सिख योद्धा युद्ध के मैदान में जाते थे तो युद्ध करते समय या घुड़सवारी करते समय उन्हें ऐसी चीज की जरूरत थी जो तन को भी ढके और उन्हें कोई परेशानी भी ना हो।

कड़ा

नियम और संयम में रहने की चेतावनी देने के लिए है। लोहे के कड़े को सुरक्षा का प्रतीक माना गया है जो सिखों को कठिनाईयों से लड़ने की हिम्मत देता है। कड़ा मुसीबत के समय एक हथियार के तौर पर काम आ सकता है। गुरु गोविंद सिंह ने कहा था कि इसके द्वारा हर खालसा मर्यादित और सीमा में रहेगा।  इसका गोल आकार अस्तित्व की पूर्णता का बोध करवाता है। यह धर्म चक्र का भी प्रतीक है।

कृपाण

यह आत्मरक्षा के लिए है। गुरू गोबिंद सिंह जी कहते थे कि एक सिख को हर समय अत्याचार से लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए और यही वजह थी कि उन्होंने अपने पास एक कृपाण रखने का हुक्म दिया। कृपाण या कटार अपनी और अपनों की रक्षा के लिए हमेशा रखना अनिवार्य है। हर खालसा का उद्देश्य धर्म की रक्षा के लिए हुआ है लेकिन धर्म की रक्षा करने वाले को आत्मरक्षा के लिए कृपाण की जरूरत होती है। इसके साथ ही यह भी कहा कि ये कृपाण सिर्फ और सिर्फ रक्षा के लिए ही निकाली जाए, इसका गलत उपयोग न किया जाए। कृपाण आत्म-रक्षा का प्रतीक होने के साथ-साथ धार्मिक तौर पर शक्ति का भी प्रतीक है जो बुराई का नाश करती है।

सिख धर्म में पगड़ी का महत्व

आपको बता दें कि सिख धर्म मे सिर को ढकने के लिए कुछ अनिवार्य दिशा निर्देश हैं। यह जरुरी नहीं है कि आप पगड़ी ही पहनें, आप चाहें तो सामान्य तौर पर सिर को ढक सकते हैं किन्तु पगड़ी पहनना एक तरह से अपने आप को ज्यादा सुसज्जित करना है। मुख्यतः आपको सिर ढकना अनिवार्य है। पगड़ी को सिख धर्म का अस्तित्व माना जाता है। सिक्ख धर्म मे कई प्रकार की पगडिय़ां पहनने का प्रचलन है।

सिख पगड़ी को सिर्फ सांस्कृतिक धरोहर ही नही मानते, पगड़ी उनके लिए सम्मान, स्वाभिमान के साथ-साथ आध्यात्म का भी प्रतीक माना जाता है। सिखों के बीच, पगड़ी आस्था का भी एक प्रतीक है। यह साहस और पवित्रता का प्रतिनिधित्व करता है। पंजाबी संस्कृति में, निस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करने वालों को पारंपरिक रूप से पगड़ी देकर सम्मानित किया जाता है। इसके साथ ही पगड़ी जिम्मेदारी का भी प्रतीक है।

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  • […] पर नियमित रूप से तिलक लगाने से मन को शीतलता और शांति मिलती […]

  • […] महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन ब्रह्म, गरूड़, विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में भी किया गया है। यमराज की गणना भी पितरों में होती है। अर्यमा को पितरों का प्रधान माना गया है और यमराज को न्यायाधीश। काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम- ये चार इस जमात के मुख्य गण प्रधान हैं।पितृ पक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता है। इन्हीं को पितर कहते हैं। पितर चाहे किसी भी योनि में हों वे अपने पुत्र, पु‍त्रियों एवं पौत्रों के द्वारा किया गया श्राद्ध का अंश जरूर स्वीकार करते हैं। ऐसा करने से पितृ प्रसन्न होते हैं और ऐसा माना जाता है कि उन्हें नीच योनियों से मुक्ति भी मिलती है।मान्यता है कि जो लोग श्राद्ध नहीं करते, उनके पितृ उनके दरवाजे से वापस दुखी होकर चले जाते हैं और इस तरह आप सुख से नहीं रह पाते हैं। कुल मिलाकर कहने का मतलब है कि पितरों को दुखी करके कोई भी सुखी नहीं रह सकता है फिर चाहे आप कुछ भी कर लो। […]

  • […] महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन ब्रह्म, गरूड़, विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में भी किया गया है। यमराज की गणना भी पितरों में होती है। अर्यमा को पितरों का प्रधान माना गया है और यमराज को न्यायाधीश। काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम- ये चार इस जमात के मुख्य गण प्रधान हैं।पितृ पक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता है। इन्हीं को पितर कहते हैं। पितर चाहे किसी भी योनि में हों वे अपने पुत्र, पु‍त्रियों एवं पौत्रों के द्वारा किया गया श्राद्ध का अंश जरूर स्वीकार करते हैं। ऐसा करने से पितृ प्रसन्न होते हैं और ऐसा माना जाता है कि उन्हें नीच योनियों से मुक्ति भी मिलती है।मान्यता है कि जो लोग श्राद्ध नहीं करते, उनके पितृ उनके दरवाजे से वापस दुखी होकर चले जाते हैं और इस तरह आप सुख से नहीं रह पाते हैं। कुल मिलाकर कहने का मतलब है कि पितरों को दुखी करके कोई भी सुखी नहीं रह सकता है फिर चाहे आप कुछ भी कर लो। […]

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